Saturday, January 10, 2015

फिर कुछ ....

मुझे फिर लौट आने दो ;
उसी छोटे से ;
कच्ची दीवारों के ;
छोटे घरोंदे में ........

जहाँ फुदकती रहती थी ;
छोटी चिड़िया ;
जिसे निहारा करती थीं ;
मेरी आँखें देर तक ;

और वो गिलहरी भी ;
जो नीबू के उस छोटे पेड़ पर ;
चढ़ती उतरती थी ;

उस अनजान दुनिया के कोने में ;
फिर बस जाने दो मुझे ;
इससे पहले की गुम हो जाऊं मैं ;
तेज़ चलती दुनिया में ;

शहर के किनारे फैले ;
शांत तालाब में ;
रोशनियों की चमक ;
लुभाती है , बुलाती है ;

लेकिन तब मेरे पास ;
वो काँटा नहीं होता ;
और ना ही वो आंटे की गोलियां ;
मछलियों के साथ खेलने के लिए ;

मेरे पास कुदरत की तारीफ के लिए ;
ढेरों शब्द होते हैं ;
पर वो ख़ामोशी नहीं ;
जिसमें गुम हो जाता था
मैं घंटों तक ;

और न वो नज़र थी ;
जो खूबसूरत लड़कियों को
निहारा करती है ;
गाँव की उन गलियों में ;
किसी छोरी की मासूम मुस्कराहट ही
ख़ुशी बिखेरा करती थी ;

मुझे उस मस्ती में फिर डूब जाने दो ;
जो कीचड़ की बूंदों से उछलती थी ;
इन्द्रधनुष के रंगों से बरसती थी ;

तितली पकड़ने के उस जूनून में
डूब जाता था जब मैं ;
पेड़ पर रुकी हुई
बारिश की उन बूंदों को
जमीं पर लाने का मज़ा था ;

फिर वही ;
जैसे सब कुछ खो गया है ;
इस सवाल में ;
कि हमारा फेंका पत्थर ;
पानी में कितने बार उछलता है......