Thursday, April 3, 2014

क्या मेरा है यहाँ;
और क्या तेरा;
 हर तरफ है बस
उसका ही बसेरा।


 जहाँ के ये किस्से;
 रह जाते अक्सर अधूरे;
 हम अपनी बंदिशों में;
 ढल जाते हैं पूरे।


 कैसा ये जीना - मरना;
 कैसे ये सिलसिले;
 उड़ूँ मैं कैसे अब ;
पर जो मेरे जले।


 खुशियों के बांधों में;
 बाँध लिए जो गम;
 होंठों की मुस्कुराहटें हैं;
 पलकें फिर भी नम।


 कैसी ये मंज़िल है;
 अपनी फिर भी अनजान;
 छोड़ दिए हैं वक़्त ने;
 लम्हों के ये निशां।


 जाने फिर क्यों हम;
 चल देते हैं उसी ओर ;
उलझी हुई तलाश जहाँ;
 कर रही खामोश शोर। 
फिर सवेरा हो जाता  है ;
फिर रात बीत जाती है ;
ख़ामोशी से।

 खुद में कई राज छुपाये ,
गुज़र जाते हैं कई लम्हे ;
बिन मुस्कुराये ;
सो जाते हैं फूल कई।

आसमां देखता रहता है ;
सदियों से ;
ऐसे ही ;

परदे के पीछे भी ;
बदलती रहती है दुनिया ;
संगीत खो जाता है ;
आंसुओं के थमते ही।