Saturday, September 10, 2011

जिँदगी . . .


घास पर पड़ी
ओस की बूँदोँ से
इंद्रधनुष बनता है !
उन्ही बूँदोँ पर
शरारत करती है
गिलहरी !
कभी मैँ भी
ऐसे ही
उछलता था ;
धूल भरे हाथ
इन बूँदोँ से धोता था ,
आसमान मेँ ,
तुम्हे ढूँढता था !
तब अक्सर तुम
अपने बालोँ को संवारते ,
छत पर टहलते ,
दिख जाती थीँ !
आज तुमसे
बहुत दूर आ गया हूँ
लेकिन
कुछ बूँदेँ
समेट लाया हूँ !
तुम्हारे होँठोँ की ,
बालोँ की चमक की ,
खिलखिलाती हँसी की !
जब भी अकेला होता हूँ
उन्ही बूँदोँ को छूता हूँ ,
दो पल के लिए
जी लेता हूँ ,
जिँदगी . . .


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