Thursday, April 8, 2010

प्रकृति

चलते चलते बहुत दूर आ गया हूँ । जिँदगी की राहोँ मेँ सुकून है । लेकिन हर कोई उसे खोज रहा है जो अदृश्य है । वह परमाणु के नाभिक मेँ है । वह सूर्य की ऊर्जा मेँ है । वह विश्वास की परिधि मेँ है । हर कोई उसे पाना चाहता है ; अनन्त को छूना चाहता है । समय के साथ मन भी मॉडर्न हो गया है । आस्था कहीँ नहीँ है । जो है उसे छोड़कर हर कोई उसे खोज रहा है ; जो नहीँ है । मनुष्य का शरीर उस अनुभव का ही प्रतिबिँब है जो सीमा से परे है ।

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