Thursday, April 1, 2010

आस्था

जिँदगी के मकसदोँ मेँ जाने कहाँ खो गया हूँ । फिर वही आस्था मुझे बार बार बुलाती है । सोचता हूँ , लौट आऊँ । बहुत दूर जाकर लौट पाना मुश्किल होता है । लेकिन असंभव तो कुछ भी नहीँ होता । कहते हैँ आस्था से पहाड़ हिलाए जा सकते हैँ , बड़े समुद्र पार किये जा सकते हैँ । लेकिन इस आस्था को पाने का तरीका कहीँ दिखाई नहीँ देता । जिँदगी के होने का उद्देश्य तो है पर हम उद्देश्य को भूल जाते हैँ । तब आस्था दिखाई देती है । हर वस्तु चाहे वह सजीव हो या निर्जीव ; अनन्त का ही अंश है । हमारा खुद का शरीर भी अनन्त की ही उत्पत्ति है तो फिर हम आस्था को महसूस क्योँ नहीँ करते ।



आस्था को महसूस न करने का कारण है कि हमेँ खुद पर जरूरत से ज्यादा भरोसा है । सफलता की पुस्तकेँ पढ़कर हमारा एटिट्यूड प्लस पाजिटिव हो जाता है लेकिन हम भूल जाते हैँ कि सफलता पाने के लिए अदृश्य शक्ति पर विश्वास करना जरूरी होता है । इस विश्वास के सहारे लोगोँ ने बहुत कुछ पाया है । जो हमारी सोच से भी परे है , उससे जुड़कर बड़े कामोँ को किया है । हालांकि यह आस्था मंदिरोँ मेँ नहीँ मिलती लेकिन इसे महसूस किया जा सकता है । दुनिया के प्रति अहसानमंद बनकर उस अहसास को छुआ जा सकता है जो संतुष्टि से भरा हुआ है ।



यह संसार हमारे बिना हो सकता है लेकिन हम इस संसार के बिना नहीँ हो सकते । हाँ हम इस संसार की खूबसूरती के कारण जरूर बन सकते हैँ । अब यह हमारी सोच है कि हम सुबह की किरण बनना चाहते हैँ या ओस की बूँद । चमकते तो दोनोँ हैँ पर मौन रहकर चमकने मेँ अर्थ है । जो खुशियोँ की परवाह नहीँ करते , वे आस्थावान होते हैँ । उनके पास पैसा नहीँ होता लेकिन जिँदगी का सुनहरा सुकून होता है । वे उसे पा लेते हैँ और अधिक आस्थावान हो जाते हैँ । आस्था उन्हे छू लेती है और वे अंदर से भी खूबसूरत हो जाते हैँ ।

No comments:

Post a Comment