Friday, February 17, 2012

कैद


वह
समय
अब न रहा . . .
देखता था
जब मैँ
पत्तोँ को
धीरे-धीरे
हिलते हुए ;
बादलोँ को
क्षितिज की ओर
चलते हुए !
क्योँकि
जीवन
छोटे से
लक्ष्य मेँ
सिमट गया है !
कैद हो गया हूँ
मैँ
विचारोँ के
पिँजरे मेँ !
ये विचार
मेरे नहीँ हैँ ,
समाज के हैँ !
लोग कहते हैँ
कि कुछ
करना चाहिए !
लेकिन
यही सोच
छीन लेती है
स्वतंत्रता
अंतर्मुक्ति की !
मैँ
भीतर से
कितना भी
मुक्त रहूँ ;
कैद रहना होगा
मुझे
बाहर के
नियमोँ मेँ !
कोई नहीँ जानता
मैँ कौन हूँ !
खुद के
चेहरे को
देखता हूँ
दर्पण मेँ
तो लगता है
ये चेहरा
काल्पनिक है !
अंदर से
विचारोँ की
सुन्दरता
करती है
प्रयास
बाहर
झांकने का ;
तब
हो जाता है
सृजन
किसी
नई सोच का !

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